यादों का भी होता है पुनर्जन्म,
तर्पण कर देने के बाद भी
होती है पुनरावर्तित स्मृति में
जाती है जन, पुन:पुन:
हृदय के गर्भ में
यादों का भी होता है पुनर्जन्म,
तर्पण कर देने के बाद भी
होती है पुनरावर्तित स्मृति में
जाती है जन, पुन:पुन:
हृदय के गर्भ में
चढ़ती गई शिखर दर शिखर
तन्हाइयों के कारवाँ,ओर
रखती गई हर पायदान पर
तेरे संग का एक फूल
फिर भी नहीं उठ पाए कदम
कई मर्तबा जब जकड़न हुई
तेरे संग की मजबूत तो तोड़
बेड़ियाँ ख्यालों की तेरे
बढ़ती गई इस कठोर जीवन में
अकेले, अकेले, बस अकेले.....
आ मेरी शुभ दोपहरी
कर लूँ याद उन्हे
छू कर तेरी देहरी
बैठ तेरे शांत प्रांगण में
कर लूँ दो मुलाकातें मन में
भीग जाऊँ तेरे
हर एहसास के साथ
सुमिर लूँ उनका नाम
हर श्वांस के साथ
देख असर तेरी एक मुलाकात का
बेअसर हो गया दिल का धड़कना
खड़े हैं अरमानों को समेटे बेसुध
के संग चल रहा है जमाना
ना पूछ आलम मेरी मशरूफियत का
दिल तन्हा है भीड़ भरे विराने में
मैं गई ठहर तेरी किर्ती पर
हुई स्तब्ध रही दंग देख तेरा शौर्य
किया नमन तेरे हौसले को
भरूँ तेज स्वंय में देख तेरी मूरत को
मेरी रोटी इन्तज़ार में तेरे
रोज सिकती है आज भी
लिपटी पड़ी रहती तेरी
भीगी यादों की नमी में
उसी चीर में जो लाया था तू
मेरे लिए फाड़ कर अपने हिस्से से
वो अधूरा हिस्सा आज भी है
इन्तज़ार में पूरा होने के
खींच लाती है प्यास बहुत दूर तक
तेरी एक बूँद आँखो की नमी के लिए
लांघ जाती हूँ समद सारे
समेटने उसे गिरने से पहले
इस धरा पर
हथेली मेरी होती है निहाल
रत्न मोती का पा कर
कई दिन हुए सूनी पड़ी दिल के गलियारों की पोल
ले आके आज बिछाते हैं जाजम तेरी मेरी हताई की
लगा के हुक्का सुकून से पैरवी करते हैं एक दूजे की
मैं करूँ तेरी नेकियों के सबूतों से
खिलाफत तेरी कमियों की
तू देना मेरे शिकवों को दलीलें मेरी चाहतों की
देखना तुझे ना जीता दूँ तो कहना मेरे दिल में तू नहीं
और रो ना दे तू हार पे अपनी
तो मान लेना तेरे दिल में, मैं नहीं
अगर तलाशेगा तू मुझे तो मिल जाऊँगी
तेरी थकन की सुकून भरी अंगड़ाइयों में
होगा जब तू हताश, निराश, परेशान तो
तुझमें जगी उम्मीद की छोटी सी किरण में
तेरे उस हर हारे हुए पल की जीत में
जो मिलती है तुझे तेरे दिल के सुकून में
छू लूँ तुझे
मैं बढ़ के
ना कर तय
दायरे हद के
धागे जो तेरे
हैं मन के
धागे वो मेरी
है मन्नत के
बयाँ गर हो गया शब्दो से
तो,आँखे बोलेगी क्या भावों से
मेरी पीपासा
पा कर शीतलता
हुई तृप्त
संग शीतल
हुआ अन्तर्मन
पा कर स्नेह
की आतुरता
तू भूला राह मेरे मन की
किसी से क्या शिकवा करें
हम छू नहीं पाए तेरे मन को
खुद से बस यही गिला करें
जा किया आजाद
हमने तुझे खुद से
भूल जाएंगे गुजरे ही नहीं
कभी तेरी गलियों से
हम थे रैन बसेरा बस तेरा
चल दिए तुम सहर होते
के इतनी समझ तो है हमें
जाने वाले को रोका नहीं करते
कभी-कभी हम जानते हैं कि कुआं बहुत गहरा है
फिर भी हम उसकी गहराई में उतरते जाते हैं
शायद कुछ शीतलता पाने के लिए
पर जब हम डूबने लगते हैं
तब हमें एहसास होता है कि
जो पानी शीतलता का लालच देकर
हमे बुला रहा था
वही हमारी नासमझी पर हंस रहा है