गुरुवार, 23 जून 2022

ओल्यूँ

मेरी रोटी इन्तज़ार में तेरे 

रोज सिकती है आज भी 

लिपटी पड़ी रहती तेरी 

भीगी यादों की नमी में

उसी चीर में जो लाया था तू

मेरे लिए फाड़ कर अपने हिस्से से

वो अधूरा हिस्सा आज भी है 

इन्तज़ार में पूरा होने के


खींच लाती है प्यास बहुत दूर तक 

तेरी एक बूँद आँखो की नमी के लिए 

लांघ जाती हूँ समद सारे 

समेटने उसे गिरने से पहले 

इस धरा पर 

हथेली मेरी होती है निहाल 

रत्न मोती का पा कर


गुनगुनी धूप गुनगुनाती है 

सांझ के कान में
गुदगुदाती है तेरे एहसास 
मेरे जहन में

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दर्द भरी यादें

यादों का भी होता है पुनर्जन्म,  तर्पण कर देने के बाद भी होती है पुनरावर्तित स्मृति में जाती है जन, पुन:पुन:  हृदय के गर्भ  में