बुधवार, 29 दिसंबर 2021

नहीं शेष

 जड़त्व के उस बिन्दु पर

जहाँ से नीचे जाने पर 

होती असहनीय पीड़ाएँ

बढ़ा ली लौ लकड़ी ने 

जब तक सूखी थी पीर सब

सीलन अश्रुओं ने भी 

बढ़ने दी लौ की पराकाष्ठाएँ

नहीं अधिशेष सूखी पीर 

अब तो बाकी हिय की

ना रही झोंकने को 

सीलन भरी अश्रु धाराएँ



नीड़

आजा सांझ हुई, ढूंढे तुझे मेरी नज़र 

मैं पंछी तेरे नीड़ का, तू ही है मेरी डगर


तुम मेरे हर असफल प्रयास का सफल नतीजा हो 
जिंदगी की बेतरतीब व्यवस्था को जीने सलीका हो 

इतनी सारी गरम परतें भी 
नहीं रोक पा रही तेरी यादों की ठंड 



उम्मीद

 जिंदगी उलझनों में उलझी रही कुछ इस तरह 

हर ख्वाहिश उलझती रही कठिनाइयों की तरह

कुछ सुलझा हुआ मिला तो वो थी मुश्किलें  

कदम दर कदम साथ रहीं हमसफर की तरह

हर चाहत सिमटती रही तकलीफ़ें लपेटकर

तकलीफें बढ़ती रही तमन्नाओं की तरह

हर गम ने दम तोड़ा मुस्कुराहटों के आगे

उम्मीदें फिर भी रोशन रही सितारों की तरह


मुझसे तो पार नहीं हो रही 
तेरी यादों की नाव ही 
जाने कैसे तूने 
मुझसे किनारा कर लिया 

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

Vijaydiwas 1971 (longevala)

 रख ना पाई अटूट 

धर्म की आड़ में सहस्त्र आहें जो पाक में रह गई

हुई माँ भी खंडित 

शांति की ओट में सिसकियाँ और बढ़ गई

उठी चिंगारी 

जुल्फी याह्या की लपट माँ के आंचल में लग गई 

लपट लोंगेवाला 

जो पहुँची देह सिंह की भी सुलग गई

जला कुल का दीप 

तले ले रक्त नयन ज्वाला वीरों की निकल गई

हुई सहाय धरा 

माँ बारूद टैंक भी निगल गई 

भड़काई ज्वाला

अरि ने जो निज बारूद में भी लग गई 

थार भँवर मझधार में नैया उनकी फंस गई 

उड़ा मारुत ऐसा 

दम लिया सिंहो ने सांस अरि की थम गई 

थामी मशाल 

शहीदों ने अब वो बंगबंधु में भी लग गई

चली मुक्तवाहिनी 

अगुवाई में उसकी बांग्ला बुलंद हुई 

बाँटा माँ को 

जिसने धरा उसकी ही बँट गई 

नई रोशनी नया प्रकाश ले 

स्वर्णिम किरणें बांग्ला की पूर्व में उदित हुई




शनिवार, 11 दिसंबर 2021

हरा मन

हरे खेत की हरी चुनरनिया हरी प्रीत लहराए  

हरी धरा की हरियाली हमको हरा कर जाए   


दर्द भरी यादें

यादों का भी होता है पुनर्जन्म,  तर्पण कर देने के बाद भी होती है पुनरावर्तित स्मृति में जाती है जन, पुन:पुन:  हृदय के गर्भ  में