शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

कविता दशानन

 दशानन तुम कितने थे बलशाली 

सोने की लंका भी थी तुम्हारी 

नहीं थी सरल मौत तुम्हारी 

फिर क्यों आया अंत तुम्हारा 

क्यूं पापों से भरा घड़ा तुम्हारा 

ना होता अगर लालच जो तुमने 

फैलता यश फिर चारों दिशाओं में 

ना होती जो दानव प्रवृत्ति तुम्हारी 

सफलता होती हर पग पर तुम्हारी 

बुद्धि थी उच्च कोटि की तुम्हारी 

क्यूं ना फैली यश कीर्ति तुम्हारी 

दस मुख से शोभित सूरत थी तुम्हारी 

फिर क्यूं ना हो पाई जग को वो प्यारी 

हर मुख में थी एक खूबी तुम्हारी 

तो हर मुख में थी एक बुराई तुम्हारी 

ना होता जो दंभ तुममे इतना 

पा जाते सम्मान तुम फिर कितना 

नहीं देखते जो तुम पर नारी 

तो ना होती ये गति तुम्हारी 

होती अगर संतोषी प्रवृत्ति तुम्हारी 

मात ना होती राम से तुम्हारी 

सत् के पथ पर रहते अङिग तो 

हस्ती कुछ और होती तुम्हारी





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दर्द भरी यादें

यादों का भी होता है पुनर्जन्म,  तर्पण कर देने के बाद भी होती है पुनरावर्तित स्मृति में जाती है जन, पुन:पुन:  हृदय के गर्भ  में