दशानन तुम कितने थे बलशाली
सोने की लंका भी थी तुम्हारी
नहीं थी सरल मौत तुम्हारी
फिर क्यों आया अंत तुम्हारा
क्यूं पापों से भरा घड़ा तुम्हारा
ना होता अगर लालच जो तुमने
फैलता यश फिर चारों दिशाओं में
ना होती जो दानव प्रवृत्ति तुम्हारी
सफलता होती हर पग पर तुम्हारी
बुद्धि थी उच्च कोटि की तुम्हारी
क्यूं ना फैली यश कीर्ति तुम्हारी
दस मुख से शोभित सूरत थी तुम्हारी
फिर क्यूं ना हो पाई जग को वो प्यारी
हर मुख में थी एक खूबी तुम्हारी
तो हर मुख में थी एक बुराई तुम्हारी
ना होता जो दंभ तुममे इतना
पा जाते सम्मान तुम फिर कितना
नहीं देखते जो तुम पर नारी
तो ना होती ये गति तुम्हारी
होती अगर संतोषी प्रवृत्ति तुम्हारी
मात ना होती राम से तुम्हारी
सत् के पथ पर रहते अङिग तो
हस्ती कुछ और होती तुम्हारी
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