दूर क्षितिज पर शाम को
सूरज भी जाता धाम को
उड़ते पंछी ढूंढे नीड को
हलदर भी लौटे शाम को
क्यूँ कि जानते ये तो सभी है
सामने मुंह को अंधेरा है
रात में बाहर नहीं कोई बसेरा है
मगर यह कौन सा दौर है
रातों में अब घूमता कौन है
क्यूँ इंसान अब तक थकता नहीं
रातों को भी अब सोता नहीं
सजते मयखाने क्यूँ रात को
निकलते क्यूँ मयकस रात को
हाँ यह कैसा दौर है
दिन जहां सुनसान है
रात यहां गुलजार है
पांचाली
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