शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

रात गुलजार कविता

 दूर क्षितिज पर शाम को 

सूरज भी जाता धाम को 

उड़ते पंछी ढूंढे नीड को 

हलदर भी लौटे शाम को 

क्यूँ कि जानते ये तो सभी है 

सामने मुंह को अंधेरा है 

रात में बाहर नहीं कोई बसेरा है 

मगर यह कौन सा दौर है 

रातों में अब घूमता कौन है 

क्यूँ इंसान अब तक थकता नहीं 

रातों को भी अब सोता नहीं 

सजते मयखाने क्यूँ रात को 

निकलते क्यूँ मयकस रात को 

हाँ यह कैसा दौर है 

दिन जहां सुनसान है 

रात यहां गुलजार है

                                                      पांचाली 




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