बुधवार, 29 दिसंबर 2021

नहीं शेष

 जड़त्व के उस बिन्दु पर

जहाँ से नीचे जाने पर 

होती असहनीय पीड़ाएँ

बढ़ा ली लौ लकड़ी ने 

जब तक सूखी थी पीर सब

सीलन अश्रुओं ने भी 

बढ़ने दी लौ की पराकाष्ठाएँ

नहीं अधिशेष सूखी पीर 

अब तो बाकी हिय की

ना रही झोंकने को 

सीलन भरी अश्रु धाराएँ



1 टिप्पणी:

  1. सूखी थी पीर बहुत ही अनुपम प्रयोग पढ़ने को मिला।
    रचना सुस्पष्ट मन को छूती, हृदय के अन्तिम छोर तक।

    बधाई और शुभकामनाएं।

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