है धरा आज व्यथित
अंतर्मन शोक से
कर रही है विलाप
स्वयं ही क्रदन से
देख दशा मानव की
पीड़ित है खेद से
मानव था सच्चा सपूत
आज आह्लाद है पीड़ से
बन नासमझ
विकास की होड़ में
क्यूँ छला स्वयं को
अपने ही कर्म से
है धरा आज व्यथित
अंतर्मन शोक से
कर रही है विलाप
स्वयं ही क्रदन से
देख दशा मानव की
पीड़ित है खेद से
मानव था सच्चा सपूत
आज आह्लाद है पीड़ से
बन नासमझ
विकास की होड़ में
क्यूँ छला स्वयं को
अपने ही कर्म से
जलाकर मशाल क्रांति की
देश को थमाई थी
कर आगाज विद्रोह का
अलख आजादी की जगाई थी
बन प्रथमेश जागृति का
आंधी इंकलाब की लाई थी
सूत्रधार जननायक क्रांति का
सो गहरी नींद फांसी की
नींद हमारी उड़ाई थी