गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020

कविता सैलाब

 🍁 उठने दो एक ज्वार दर्द का 

     मत रोको इसे जहन के भीतर 

     बह जाने दो सैलाब दुखो का 

     अश्कों से चाहे लफ्जों में बनकर 

     निकलेंगे जो अश्को के समंदर 

     हल्का कर देंगे तुम को ये अंदर 

     जो निकलेंगे लफ्ज़ ये बनकर 

     तो होगी इनसे रचना बेहतर 🦚



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